यों ही राहों में मिल जाते कुछ जाने-अनजाने लोग;
अक्सर याद दिला देते हैं कुछ भीगे अफ़साने लोग।
पल भर में अपना सा लगने लगता कोई शख्स कभी,
जिनको हरदम अपना माना वो निकले बेगाने लोग।
अच्छों को भी बुरा बताना कुछ लोगों की फितरत है;
मगर न हमने सुनी किसीकी आए जब बहकाने लोग।
अपना बन कर गले लगाते, दिल दीवाना कर देते;
लेकिन हौले-हौले लगते अपना रंग दिखाने लोग।
काजल भरी कोठरी से वे ले आए हीरे-मोती;
हमने क्यों उस ओर न देखा, गलती लगे बताने लोग।
जाती थीं जो दरबारों तक उन सड़कों पर नहीं मुड़े;
' उम्र गँवा दी कुछ तो सीखो', लगे हमें समझाने लोग।
रहे पीटते लीक पुरानी नया न कुछ कर पाए जो;
देख कामयाबी औरों की लगते बस बिसराने लोग।
दरवाजे पर दस्तक देते अपने मतलब की खातिर;
मगर न मुड़ कर आते फिर जो होते बहुत सयाने लोग।
नए वक्त में नई अदा से मिलते हर दिन शख्स नए;
पर जब भी हम हुए अकेले आए याद पुराने लोग।
-हेमन्त 'स्नेही'
***
Thursday, September 17, 2009
Sunday, September 13, 2009
डरता हूँ 'अक्लमंदों' से (रुबाइयाँ)
काश , ऐसा न कुछ करे कोई,
रात भर सिसकियाँ भरे कोई,
बेवफाई न इस कदर कीजे,
प्यार के नाम से डरे कोई।
लोग कितने अजीब होते हैं,
गर्ज़ हो तो करीब होते हैं,
फेर लेते नज़र खुदा बन कर,
क्योंकि दिल के ग़रीब होते हैं।
खौफ़ कैसा खुदा के बन्दों से,
खंजरों से लगे न फन्दों से,
कातिलों से नहीं मुझे दहशत,
सिर्फ़ डरता हूँ 'अक्लमंदों' से।
हो गए क्यों निसार हम ज़्यादा,
पालते ही रहे भरम ज़्यादा,
दुश्मनों से नहीं गिला कोई,
दोस्तों ने किए सितम ज़्यादा।
-हेमन्त 'स्नेही'
***
रात भर सिसकियाँ भरे कोई,
बेवफाई न इस कदर कीजे,
प्यार के नाम से डरे कोई।
लोग कितने अजीब होते हैं,
गर्ज़ हो तो करीब होते हैं,
फेर लेते नज़र खुदा बन कर,
क्योंकि दिल के ग़रीब होते हैं।
खौफ़ कैसा खुदा के बन्दों से,
खंजरों से लगे न फन्दों से,
कातिलों से नहीं मुझे दहशत,
सिर्फ़ डरता हूँ 'अक्लमंदों' से।
हो गए क्यों निसार हम ज़्यादा,
पालते ही रहे भरम ज़्यादा,
दुश्मनों से नहीं गिला कोई,
दोस्तों ने किए सितम ज़्यादा।
-हेमन्त 'स्नेही'
***
Subscribe to:
Posts (Atom)