Sunday, September 13, 2009

डरता हूँ 'अक्लमंदों' से (रुबाइयाँ)

काश , ऐसा न कुछ करे कोई,
रात भर सिसकियाँ भरे कोई,
बेवफाई न इस कदर कीजे,
प्यार के नाम से डरे कोई।

लोग कितने अजीब होते हैं,
गर्ज़ हो तो करीब होते हैं,
फेर लेते नज़र खुदा बन कर,
क्योंकि दिल के ग़रीब होते हैं।

खौफ़ कैसा खुदा के बन्दों से,
खंजरों से लगे न फन्दों से,
कातिलों से नहीं मुझे दहशत,
सिर्फ़ डरता हूँ 'अक्लमंदों' से।

हो गए क्यों निसार हम ज़्यादा,
पालते ही रहे भरम ज़्यादा,
दुश्मनों से नहीं गिला कोई,
दोस्तों ने किए सितम ज़्यादा।

-हेमन्त 'स्नेही'

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5 comments:

अपूर्व said...

फेर लेते नज़र खुदा बन कर,
क्योंकि दिल के ग़रीब होते हैं।

बहुत खूबसूरत नज़्म..और हक़ीकत के करीब पंक्तियां

बधाई

संजय तिवारी said...

आपको हिन्दी में लिखता देख गर्वित हूँ.

भाषा की सेवा एवं उसके प्रसार के लिये आपके योगदान हेतु आपका हार्दिक अभिनन्दन करता हूँ.

Udan Tashtari said...

बहुत बढ़िया.

वाणी गीत said...

बेवफाई न इस कदर कीजे,
प्यार के नाम से डरे कोई।
बहुत डरते है हम भी अक्लमंदों से ..
बहुत बढ़िया ..!!

अनुराग अन्वेषी said...

इन रुबाइयों को पढ़कर एक गजल याद आ गई।
अपनी डफली, अपना सरगम, अपने में दीवाने लोग

रिश्तों के टूटे दर्पण में सब के सब बेगाने लोग.
कांटों का मौसम तो हमने तन्हा-तन्हा पार किया

फूलों के मौसम में आए हमको गले लगाने लोग
साहिल-कश्ती, चप्पू-नाविक, डोरी-लंगर, लग्गा-पाल
फिर दरिया की बात चली तो फिर आए बहकाने लोग
सच को सच कहने का यारो, जब हम पर तोहमत आया
गली गांव शहर से दौड़े फिर पत्थर बरसाने लोग