प्रेम-अनुबंध कहाँ पाओगे;
भाव-मकरंद कहाँ पाओगे,
धन से सुख तो खरीद लोगे पर,
मन का आनन्द कहाँ पाओगे।
भाव का मेह कहाँ पाओगे;
प्यार का गेह कहाँ पाओगे;
दोस्त चाहे तुम्हें मिलें लाखों,
किन्तु यह स्नेह कहाँ पाओगे।
प्रेम प्रासाद क्यों ढहा होता;
आँख से नीर क्यों बहा होता;
आप पर क्या न वार देते हम,
आपने बस कभी कहा होता।
एक दीपक जलाए ही रखते;
बात मन की छुपाए ही रखते;
था हमें भ्रम कि आप अपने हैं,
आप यह भ्रम बनाए ही रखते।
-हेमन्त 'स्नेही'
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3 comments:
सन्त हूँ ना पीर हूँ;
सिर्फ बहता नीर हूँ।
मुस्करा कर देखिए;
आपकी तस्वीर हूँ।
वाह हेमन्त अच्छा लिखते हैं आप। बहुत-बहुत बधाई।
सभी मुक्तक बहुत सुन्दर है।बधाई।
bahut acha sir, apko padhkar bahut kuch samajhne ko milta hai.
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