Friday, December 25, 2009

बंजारे हैं जाना होगा ( ग़ज़ल )

बंजारे हैं जाना होगा,
जाने फिर कब आना होगा।

बस उतनी ही देर रुकेंगे,
जितना पानी-दाना होगा।

शहर बड़ा पर दिल छोटे हैं,
जाने कहाँ ठिकाना होगा।

चलो किया उसने जो चाहे,
हमको मगर निभाना होगा।

जिसने पथ में कांटे बोए,
वो जाना-पहचाना होगा।

कौन भला चुप रहने देगा,
कुछ तो रोना-गाना होगा।

रोने वाला पागल ठहरे,
हँसे तो वो दीवाना होगा।


दिल में दर्द भरा हो कितना,
होठों को मुस्काना होगा।

मौन रहो तो लोग कहेंगे,
कोई राज़ छिपाना होगा।

प्रियतम को देने की खातिर,
कुछ तो यहाँ कमाना होगा।

कुछ की तो मज़बूरी होगी,
कुछ का मगर बहाना होगा।

शमा जलेगी महफ़िल में पर,
कुरबां तो परवाना होगा।

आज जहाँ है धूम हमारी,
कल अपना अफसाना होगा।


-हेमन्त 'स्नेही'
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Saturday, November 7, 2009

आप यह भ्रम बनाए ही रखते (चार मुक्तक)

प्रेम-अनुबंध कहाँ पाओगे;
भाव-मकरंद कहाँ पाओगे,
धन से सुख तो खरीद लोगे पर,
मन का आनन्द कहाँ पाओगे।

भाव का मेह कहाँ पाओगे;
प्यार का गेह कहाँ पाओगे;
दोस्त चाहे तुम्हें मिलें लाखों,
किन्तु यह स्नेह कहाँ पाओगे।

प्रेम प्रासाद क्यों ढहा होता;
आँख से नीर क्यों बहा होता;
आप पर क्या न वार देते हम,
आपने बस कभी कहा होता।

एक दीपक जलाए ही रखते;
बात मन की छुपाए ही रखते;
था हमें भ्रम कि आप अपने हैं,
आप यह भ्रम बनाए ही रखते।

-हेमन्त 'स्नेही'
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Saturday, October 3, 2009

एक ग़ज़ल की कहानी

अपनी एक ग़ज़ल आए याद पुराने लोग के उद्भव और फ़िर उसकी परिणति की कहानी से आपको अवगत कराना चाहता हूँ। दरअसल , मैंने कुछ दिन पूर्व (गत १३ सितम्बर को) डरता हूँ 'अक्लमंदों' से शीर्षक के अन्तर्गत चार रुबाइयाँ पोस्ट की थीं। इन रुबाइयों पर अपनी प्रतिक्रिया दर्ज़ करते हुए प्रिय मित्र अनुराग अन्वेषी ने एक ग़ज़ल के कुछ शे'र उद्धृत किए थे। इस ग़ज़ल के रचयिता का नाम न तो अनुराग को मालूम है, न ही प्रयास के बावजूद मैं खोज सका। शे'र थे---
अपनी डफली, अपना सरगम, अपने में दीवाने लोग,
रिश्तों के टूटे दर्पण में सब के सब बेगाने लोग।
कांटों का मौसम तो हमने तन्हा-तन्हा पार किया,
फूलों के मौसम में आए हमको गले लगाने लोग।...
ये शे'र मुझे बहुत ही अच्छे लगे, विशेष रूप से इनका काफिया और रदीफ़। विषय और भाव तो मोहक थे ही। परिणाम यह हुआ की मैं इसी बहर पर और कुछ ऐसे ही काफिये और रदीफ़ को लेकर एक ग़ज़ल लिखने का मोह संवरण नहीं कर सका। और इस तरह उद्भव हुआ ग़ज़ल आए याद पुराने लोग का, जिसे मैंने गत १७ सितम्बर को इसी ब्लॉग पर पोस्ट किया था। ग़ज़ल थी ---

यों ही राहों में मिल जाते कुछ जाने-अनजाने लोग;
अक्सर याद दिला देते हैं कुछ भीगे अफ़साने लोग।

बरसों जिनको अपना समझो वही निकलते गैर कभी;
पल भर में अपने हो जाते लेकिन कुछ बेगाने लोग।

अच्छों को भी बुरा बताना कुछ लोगों की फितरत है;
मगर न हमने सुनी किसी की आए जब बहकाने लोग।

अपना बन कर गले लगाते, दिल दीवाना कर देते;
लेकिन हौले-हौले लगते अपना रंग दिखाने लोग।

काजल भरी कोठरी से वे ले आए हीरे-मोती;
हमने क्यों उस ओर न देखा, गलती लगे बताने लोग।

जाती थीं जो दरबारों तक उन सड़कों पर नहीं मुड़े;
'उम्र गँवा दी कुछ तो सीखो', लगे हमें समझाने लोग।

रहे पीटते लीक पुरानी नया न कुछ कर पाए जो;
देख कामयाबी औरों की लगते बस बिसराने लोग।

दरवाजे पर दस्तक देते अपने मतलब की खातिर;
मगर न मुड़ कर आते फिर जो होते बहुत सयाने लोग।

नए वक्त में नई अदा से मिलते हर दिन शख्स नए;
पर जब भी हम हुए अकेले आए याद पुराने लोग।

लेकिन कहानी अभी समाप्त नहीं हुई। इस ग़ज़ल को पढ़ कर एक हास्य कवि हँसोड़ हँसीलाबादी ने एक पैरोडी लिख डाली और मुझे इस टिप्पणी के साथ भेजी कि ' हर अच्छी ग़ज़ल का सत्यानाश करना मैं अपना जन्मसिद्ध अधिकार समझता हूँ, लिहाज़ा आपकी ग़ज़ल भी इस सदगति से बच नहीं सकती।' बहरहाल हँसोड़ हँसीलाबादी जी की पैरोडी ज्यों की त्यों ससम्मान यहाँ प्रस्तुत कर रहा हूँ ---

कहाँ-कहाँ से आ जाते हैं उल्लू हमें बनाने लोग,
सुनते नहीं किसीकी आते ही सर लगते खाने लोग।

लम्बी-लम्बी हाँका करते जैसे हों ये अरबपती,
कहो पान को तो झट लगते खाली जेब दिखाने लोग।

सुबह-सुबह जो शकल देख लो दिन भर चाय नहीं मिलती,
अब चाहे कमबख्त कहो या कहो उन्हें मरजाने लोग।

डंडा दिखा-दिखा कर मुझको रहे डराते सारी उम्र,
मैंने जब बन्दूक दिखा दी तुरत लगे मिमयाने लोग।

देख थोबड़ा मेरा फ़ौरन नज़र बचा कर चल देते,
साली हो गर साथ लिपट कर लगते गले लगाने लोग।

अगर मंच से महिला कोई पढ़े ग़ज़ल तो क्या कहने,
मेरे माइक पर आते ही लगते हैं हुटियाने लोग।

हाड़तोड़ जो मेहनत करते पाते नहीं चबेना भी,
हाथ हिलाते नहीं कभी पर खाते खूब मखाने लोग।

परेशान है सी बी आई , रँगे हाथ पकड़े कैसे,
रिश्वत लेने लगे पहन कर हाथों में दस्ताने लोग।

मेरी ग़ज़ल को इस सदगति तक पहुँचाने के लिए हँसोड़ जी का आभार व्यक्त करना अपना कर्तव्य समझता हूँ। हास्य कवि कभी-कभी हलके-फुल्के ढंग से भी कितनी बड़ी बातें कह देते हैं, यह ग़ज़ल उसका उदाहरण है। खास तौर पर यह शे'र ---

हाड़तोड़ जो मेहनत करते , पाते नहीं चबेना भी ;
हाथ हिलाते नहीं कभी पर खाते खूब मखाने लोग।


-हेमन्त 'स्नेही'

Thursday, September 17, 2009

आए याद पुराने लोग (ग़ज़ल)

यों ही राहों में मिल जाते कुछ जाने-अनजाने लोग;
अक्सर याद दिला देते हैं कुछ भीगे अफ़साने लोग।

पल भर में अपना सा लगने लगता कोई शख्स कभी,
जिनको हरदम अपना माना वो निकले बेगाने लोग


अच्छों को भी बुरा बताना कुछ लोगों की फितरत है;
मगर न हमने सुनी किसीकी आए जब बहकाने लोग।

अपना बन कर गले लगाते, दिल दीवाना कर देते;
लेकिन हौले-हौले लगते अपना रंग दिखाने लोग।

काजल भरी कोठरी से वे ले आए हीरे-मोती;
हमने क्यों उस ओर न देखा, गलती लगे बताने लोग।


जाती थीं जो दरबारों तक उन सड़कों पर नहीं मुड़े;
' उम्र गँवा दी कुछ तो सीखो', लगे हमें समझाने लोग।

रहे पीटते लीक पुरानी नया न कुछ कर पाए जो;
देख कामयाबी औरों की लगते बस बिसराने लोग।

दरवाजे पर दस्तक देते अपने मतलब की खातिर;
मगर न मुड़ कर आते फिर जो होते बहुत सयाने लोग।

नए वक्त में नई अदा से मिलते हर दिन शख्स नए;
पर जब भी हम हुए अकेले आए याद पुराने लोग।


-हेमन्त 'स्नेही'
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Sunday, September 13, 2009

डरता हूँ 'अक्लमंदों' से (रुबाइयाँ)

काश , ऐसा न कुछ करे कोई,
रात भर सिसकियाँ भरे कोई,
बेवफाई न इस कदर कीजे,
प्यार के नाम से डरे कोई।

लोग कितने अजीब होते हैं,
गर्ज़ हो तो करीब होते हैं,
फेर लेते नज़र खुदा बन कर,
क्योंकि दिल के ग़रीब होते हैं।

खौफ़ कैसा खुदा के बन्दों से,
खंजरों से लगे न फन्दों से,
कातिलों से नहीं मुझे दहशत,
सिर्फ़ डरता हूँ 'अक्लमंदों' से।

हो गए क्यों निसार हम ज़्यादा,
पालते ही रहे भरम ज़्यादा,
दुश्मनों से नहीं गिला कोई,
दोस्तों ने किए सितम ज़्यादा।

-हेमन्त 'स्नेही'

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Thursday, August 20, 2009

कद्र कीजिए नातों की ( ग़ज़ल )

कद्र कीजिए नातों की,
दिल से दिल की बातों की।

अक्सर बहुत रुलाती हैं,
यादें कुछ आघातों की।

सूरज वो जो धो डाले,
सारी स्याही रातों की।

क्या-क्या रंग दिखाती हैं,
चन्द लकीरें हाथों की।

देखे ऐसे लोग बहुत,
खाते जो बस बातों की।


पढ़ो इबारत फुरसत में,
अपने दिल के खातों की।


किस्मत याद दिला देती,
सब को ही औकातों की।

खाली हाथ, मगर दिल में,
दौलत हो जज़्बातों की।


-हेमन्त 'स्नेही'
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Friday, May 29, 2009

प्यार है अनमोल (चार मुक्तक)

प्यार हर सम्बन्ध का आधार है;
प्यार से मन को मिला विस्तार है;
ज़िन्दगी निःसार है बिन प्यार के,
प्यार जीवन का सहज सिंगार है।
***
प्रेम-पथ की यात्रा अविराम है;
सार्थक लेकिन सदा निष्काम है;
प्यार का अभिप्राय चंचलता नहीं,
प्यार अविचल साधना का नाम है।
***
प्यार है अनमोल धन स्वीकार कर;
मत कभी इस सत्य से इनकार कर;
क्या पता भगवान कब किसको मिले,
बस अभी इंसान से तू प्यार कर।
***
प्यार अपने ही हृदय का ज्ञान है;
प्यार जीवन का अटल विज्ञान है;
प्यार को पूजा समझना चाहिए,
प्यार प्रभु का श्रेष्ठतम वरदान है।
***
-हेमन्त 'स्नेही'

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Saturday, February 14, 2009

ज़िन्दगी यों गुज़रनी चाहिए

ज़िन्दगी यों गुज़रनी चाहिए.
आदमीयत निखरनी चाहिए.

जो परेशां करे किसी को भी,
बात ऐसी न करनी चाहिए.

लोग हमको न बेवफा कह दें ,
सोच कर रूह डरनी चाहिए।

दर्द दिल में रहें दफ़न कितने,
मुस्कराहट बिखरनी चाहिए.

काश, कुछ काम वो करें जिससे,
कोई किस्मत संवरनी चाहिए.

ठेस गर आपको लगे कोई,
आँख मेरी भी भरनी चाहिए.

हो न जज़्बा अगर निभाने का,
दोस्ती ही न करनी चाहिए।

-हेमन्त 'स्नेही'
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Sunday, February 8, 2009

कुछ पंक्तियाँ, नभाटा के सहयोगियों के नाम...

सुबह गुज़रती और शाम कट जाती है,
मगर हमेशा याद आपकी आती है।

अख़बारों के साथ सुबह दस्तक कोई,
हर दिन मेरा दरवाज़ा खटकाती है।

ख़बरों के ही बीच झरोखे से अक्सर,
कोई शक्ल उभर कर कुछ मुस्काती है।

किसी पृष्ठ पर कहीं चुटीली सी फब्ती,
किसी कलम की कारीगरी दिखाती है।

हर दिन कुछ पन्ने मोहक बन जाते हैं,
मित्रों की प्रतिभा जब रंग जमाती है।

जिनको अक्सर याद किया करते हैं हम,
क्या उनको भी याद हमारी आती है !

-हेमन्त 'स्नेही'
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