फिसली सुर्ख सुबह मुट्ठी से,रुकी न दोपहरी;
लाख मनाया पर निर्मोही शाम नहीं ठहरी ।
सिमट गयी सांसों में लाखों सूरज की गरमी;
चुभने लगी बदन में रजनीगंधा की नरमी;
दिन बीता उथला-उथला पर रात हुई गहरी।
फिसली सुर्ख सुबह मुट्ठी से, रुकी न दोपहरी।
यादें जागी-जागी सी, आँखें खोई-खोई;
टूटे सपनों का काजल कब तक आँजे कोई;
कुछ तो गीत हुए गूँगे कुछ प्रीत हुई बहरी।
फिसली सुर्ख सुबह मुट्ठी से, रुकी न दोपहरी।
Thursday, July 17, 2008
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