दिन हुए छोटे कि रातें बढ़ गईं।
ज़िदगी की ओढ़नी पर प्रेम की;
बूटियां कितनी न जाने कढ़ गईं।
खिल उठी मन की कली मधुमास में;
पत्तियां सूखी हुई सब झड़ गईं।
बूटियां कितनी न जाने कढ़ गईं।
खिल उठी मन की कली मधुमास में;
पत्तियां सूखी हुई सब झड़ गईं।
ज़िंदगी में आप की परछाइयां;
इंद्रधनुषी चित्र कोई जड़ गईं।
अब न आंखों को लगे गीता भली;
ढाई अक्षर प्रेम का क्या पढ़ गईं।
3 comments:
अब न आंखों को लगे गीता भली;
ढाई अक्षर प्रेम का क्या पढ़ गईं।
achcha likha hai
बहुत बढिया. बहुत बधाई.
very nice song sir
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