Saturday, September 20, 2008

हर तरफ़ लगता चमन जलता हुआ (ग़ज़ल)

हर तरफ़ लगता चमन जलता हुआ,
आदमी को आदमी छलता हुआ।

हो गया हर लक्ष्य बौना इस तरह,
बर्फ जैसे धूप में गलता हुआ।

हो न पाया जो कभी साकार वो,
ख्वाब आंखों में रहा पलता हुआ।

घोषणाओं पर अमल होता नहीं,
देखिए हर फ़ैसला टलता हुआ।

जो गया दरबार खाली हाथ ले,
लौट आया हाथ वो मलता हुआ।

जड़ नहीं जिसकी ज़मीं में देखिए,
खूब उसको फूलता-फलता हुआ।

नीति का आदर्श कुछ ऐसा लगे,
सूर्य जैसे शाम का ढलता हुआ।

था कहाँ जाना मुझे ना पूछिए,
आ गया जाने कहाँ चलता हुआ।

9 comments:

परमजीत सिहँ बाली said...

बहुत बेहतरीन गजल है।

था कहाँ जाना मुझे ना पूछिए,
आ गया जाने कहाँ चलता हुआ।

Udan Tashtari said...

हर तरफ़ लगता चमन जलता हुआ,
आदमी को आदमी छलता हुआ।


--बहुत उम्दा!!! वाह!

फ़िरदौस ख़ान said...

हर तरफ़ लगता चमन जलता हुआ,
आदमी को आदमी छलता हुआ।

हो गया हर लक्ष्य बौना इस तरह,
बर्फ जैसे धूप में गलता हुआ।

हो न पाया जो कभी साकार वो,
ख्वाब आंखों में रहा पलता हुआ।

शानदार ग़ज़ल...

Dr. Amar Jyoti said...

'जड़ नहीं जिसकी ज़मीं में देखिये,
ख़ूब उसको फूलता-फलता हुआ।'
समसामयिक यथार्थ का सटीक चित्रण।
बधाई।

अनुराग अन्वेषी said...

दिल छूती ग़ज़ल

Advocate Rashmi saurana said...

satik rachana hai. jari rhe.

हर्षदेव said...

dil mein kahin gahare utar gai,
ye ghazal ek mukam tay karti hui.

Hemant Snehi said...

श्री सजीव सारथी का यह सन्देश दो दिन पूर्व २१ सितम्बर को प्राप्त हुआ था, जो किसी तकनीकी कारणवश पब्लिश नहीं हो सका. श्री सारथी से क्षमायाचना सहित इसे यहाँ दे रहा हूँ.

नए चिट्टे की बहुत बहुत बधाई, निरंतर सक्रिय लेखन से हिन्दी ब्लॉग्गिंग को समृद्ध करते रहें.
आपका मित्र
सजीव सारथी

Neetu Singh said...

bahut badhiya hai sir